Saturday, October 10, 2009

आशा और निराशा,,

सांझ का सूरज ढल गया है..
काली बदरा छाई है..
निराश है मेरा तन-मन..,
शायद फिर वही सुबह आई है...

हताश हू, निराश हू, बदहवाश हू..
एक ऐसी पवन आई है..
वीरान है वो सारी दुनिया , वो सारे सपने..
रह गयी तो बस अब तन्हाई है !

फूल भी अब खुशबु नहीं देते..
शायद ये मेरी सच्चाई है..
इस सुबह का नहीं था इंतज़ार ..
होंसला ना डगमगाए उस पल पर नहीं था एतबार ..

मगर सच तो ये है...
अब तो दिन में ही काली बदरा छाई है..
ऐसी सुबह का कौन करे इंतज़ार ?
जहा सिर्फ और सिर्फ निराशा ही हाथ आई है..

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